चना की खेती (Gram Cultivation)

चना रबी सीजन की एक प्रमुख फसल है. इसे छोलिया या बंगाल ग्राम के नाम से भी जाना जाता है. दालों की फसलों में इसका एक अहम स्थान है और सब्जी बनाने से लेकर मिठाई बनाने तक इसका सभी में उपयोग किया जाता है.भारत में मध्य प्रदेश, राज्यस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्यों में इसकी फसल बड़े पैमाने पर की जाती है. इसके अलावा आकार, रंग और रूप के आधार पर चने को दो श्रेणियों में बांटा गया है. जिसमें पहली श्रेणी में देशी या भूरा चना आता है और दूसरे श्रेणी में काबुली या सफेद चना आता है.
चने की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी, जलवायु और तापमान :-
चने की खेती किसी भी उपजाऊ और उचित जल निकासी वाली मिट्टी में की जा सकती है चने की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए दोमट मिट्टी को उपयुक्त माना जाता है | इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 7.5 के मध्य होना चाहिए | चने का पौधा ठंडी जलवायु वाला होता है, इसकी खेती में पानी की पूर्ति  के लिए बारिश के मौसम में पौधों की रोपाई की जाती है, तथा अधिक वर्षा भी पौधों के लिए हानिकारक होती है | इसके पौधे ठंडी जलवायु में अच्छे से वृद्धि करते है, किन्तु सर्दियों के मौसम में गिरने वाला पाला पौधों को हानि पहुँचाता है|
अधिक गर्मी के मौसम में इसके पौधों पर कई तरह के रोग देखने को मिल जाते है | सामान्य तापमान में चने की खेती आसानी से की जा सकती है | इसके पौधों 20 डिग्री तापमान में अच्छे अंकुरित होते है | चने का पौधा अधिकतम 30 डिग्री तथा न्यूनतम 10 डिग्री तापमान को ही सहन कर सकता है, इससे कम तापमान पैदावार को प्रभावित करता है|

चने के खेत की तैयारी और उवर्रक:-
चने के बीजो की रोपाई से पहले उसके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लिया जाता है, इसके लिए सबसे पहले खेत की अच्छी तरह से गहरी जुताई कर दी जाती है | जुताई के बाद खेत को कुछ समय के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दे | इससे खेत की मिट्टी में अच्छी तरह से धूप लग जाती है, और मिट्टी में मोजूद हानिकारक तत्व पूरी तरह से नष्ट हो जाते है | खेत की पहली जुताई के बाद उसमे 10 से 12 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना होता है | खाद को खेत में डालने के बाद जुताई कर मिट्टी में खाद को अच्छी तरह से मिला दिया जाता है | इसके बाद खेत में पानी लगाकर पलेव कर दिया जाता है, पलेव के बाद जब खेत की मिट्टी सूखी दिखाई देने लगे उस समय कल्टीवेटर के माध्यम से खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर दी जाती है|
जुताई के बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर दिया जाता है, इससे खेत में जलभराव नहीं होता है | चने की जड़ो में गांठे भूमि में होती है, जो भूमि से ही नाइट्रोजन की पूर्ती करती है | जिस वजह से इसके पौधों को रासायनिक उवर्रक की अधिक आवश्यकता नहीं होती है, और जैविक उवर्रक को सबसे उपयुक्त माना जाता है| रासायनिक खाद के रूप में केवल एक बोरा डी.ए.पी. की मात्रा को खेत की आखरी जुताई के समय देना होता है, तथा एक एकड़ के खेत में 25 किलो जिप्सम का छिड़काव करे |

चने के पौधों की सिंचाई :-
चने की 70 से 75 प्रतिशत बुवाई असिंचित जगहों पर की जाती है | जिस वजह से इसके पौधों को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है | जबकि सिंचित जगहों पर पौधों को पानी देना होता है | इसके पौधों को अधिकतम तीन से चार सिंचाई की जरूरत होती है, इसकी पहली सिंचाई बीज रोपाई के 30 से 35 दिन बाद की जाती है, तथा उसके बाद की सिंचाई को 25 से 30 दिन के अंतराल में करना होता है |
चने के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण :-
चने के पौधों की जड़े भूमि में होती है, और भूमि से ही पोषक तत्वों को ग्रहण करती है, ऐसे में यदि खेत में खरपतवार निकल आते है, तो पौधे पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों को ग्रहण नहीं कर पाते है | इसलिए खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही विधियों का इस्तेमाल किया जाता है | प्रकृति विधि द्वारा खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए खेत में दो से तीन गुड़ाई की आवश्यकता होती है, तथा प्रत्येक गुड़ाई 25 दिन के अंतराल में की जाती है | रासायनिक विधि में खरपतवार पर नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन की उचित मात्रा का छिड़काव बीज रोपाई के तुरंत बाद करना होता है|
चने के पौधों की कटाई:-
चने की कटाई तब करनी चाहिए जब पौधा सूख जाता है और पत्ते लाल-भूरे दिखते हैं और झड़ने शुरू हो जाते हैं, उस समय पौधा कटाई के लिए तैयार हो जाता है. कटाई करने के बाद फसल को 5-6 दिनों के लिए धूप में सुखाएं ताकि चने के अंदर से नमी खत्म हो सके

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